कविता संग्रह >> सपना अभी भी सपना अभी भीधर्मवीर भारती
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वर्षों की आतुर प्रतीक्षा के बाद आने वाला भारती जी का यह काव्य संकलन उनके विशाल पाठक वर्ग के लिए एक काव्योत्सव ही नहीं है, एक अतिरिक्त विशिष्ट अनुभूति भी है।
Sapna Abhi Bhi
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भाँति-भाँति के वाद, उठते-गिरते आन्दोलन, बनते-बिखरते सध और मंच, सिद्धांत और मतवाद-इस सबसे परे बिल्कुल अलग ही तेवर रहा है भारती जी के काव्य का ! इसलिए उनकी कविता ने पाँचवें दशक के आरम्भ में अपनी जो अनूठी पहचान बनायी वह अब नवें दशक के मध्य तक ज्यों की त्यों ताजी तो बनी ही रही, दिनोंदिन और गहराती गयी। कथ्य की परिपक्वता और शैली के वैविध्य के साथ-साथ काव्य विषयों की परिधि जिस तरह विस्तृत होती गयी वह सचमुच आश्चर्यजनक है। अलस्सुबह का मांसल फिर भी स्वप्निल प्यार हो, या पुराने किले में समकालीन इतिहास की संकटपूर्ण विडम्बना हो, या मुँह अँधेरे महक बिखराते हरसिंगार हों, या पकी उम्र का प्यार हो या मुनादी में जनान्दोलन की ललकार हो-भारती जी की संवेदना-परिधि में सब एक विशिष्ट मार्मिकता से अभिव्यक्ति होते हैं, और सबसे बड़ी बात यह है कि इतिहास का विश्लेषण हो या सोनारू जैसे निर्वासित इतिहास-वृद्ध की पीड़ा हो, कहीं छदम् बौद्धिकता नहीं, बड़बोले उपदेश नहीं, सिद्धान्त छाँटने का आडम्बर नहीं-एक सहज संवेदनशील अभिव्यक्ति, जो सीधे मर्म को छू जाये।
वर्षों की आतुर प्रतीक्षा के बाद आने वाला यह काव्य संकलन उनके विशाल पाठक वर्ग के लिए एक काव्योत्सव ही नहीं है, एक अतिरिक्त विशिष्ट अनुभूति भी है, जहाँ कवि की समस्त काव्य-क्षमताएँ अपने चरमोत्कर्ष पर हैं ! पर वह चरत्मोत्कर्ष भी विराम नहीं क्योंकि है-सपना अभी भी....
वर्षों की आतुर प्रतीक्षा के बाद आने वाला यह काव्य संकलन उनके विशाल पाठक वर्ग के लिए एक काव्योत्सव ही नहीं है, एक अतिरिक्त विशिष्ट अनुभूति भी है, जहाँ कवि की समस्त काव्य-क्षमताएँ अपने चरमोत्कर्ष पर हैं ! पर वह चरत्मोत्कर्ष भी विराम नहीं क्योंकि है-सपना अभी भी....
निवेदन
एक लंबे अरसे, बहुत-बहुत लम्बे अरसे के बाद मेरा कविता संकलन आपके हाथों में। वैसे भी कविता लिखने के बीच-बीच में पहले भी बहुत लम्बे अन्तराल छूटते थे लेकिन इस अवधि में तो एक कविता और दूसरी कविता के बीच में कभी-कभी तो वर्षों का अन्तराल हो रहा है। इस संकलन में सन् ’59 से लेकर सन् ’93 तक की कविताएँ हैं-चौंतीस लम्बे वर्ष यानी दो बनवासों की अवधि से भी कहीं ज्यादा। इन दो-दो बनवासों की समवेत अवधि के बाद भी घर लौट पाया हूँ या नहीं-पता नहीं।
-धर्मवीर भारती
30 जुलाई’93
30 जुलाई’93
कन-कन तुम्हें जी कर
अतल गहराई तक
तुम्ही में डूब कर मिला हुआ अकेलापन,
अँजुरी भर-भर कर
तुम्हें पाने के असहनीय सुख को सह जाने की थकान,
और शाम गहराती हुई
छाती हुई तन मन पर
कन-कन तुम्हें जी कर
पी कर बूँद-बूँद तुम्हें-गाढ़ी एक तृप्ति की उदासी.....
और तीसरे पहर की तिरछी धूप का सिंकाव
और गहरी तन्मयता का अकारण उचटाव
और अपने ही कन्धे पर टिके इस चेहरे का
रह-रह याद आना
और यह न याद आना
कि चेहरा यह किसका है !
तुम्ही में डूब कर मिला हुआ अकेलापन,
अँजुरी भर-भर कर
तुम्हें पाने के असहनीय सुख को सह जाने की थकान,
और शाम गहराती हुई
छाती हुई तन मन पर
कन-कन तुम्हें जी कर
पी कर बूँद-बूँद तुम्हें-गाढ़ी एक तृप्ति की उदासी.....
और तीसरे पहर की तिरछी धूप का सिंकाव
और गहरी तन्मयता का अकारण उचटाव
और अपने ही कन्धे पर टिके इस चेहरे का
रह-रह याद आना
और यह न याद आना
कि चेहरा यह किसका है !
5 मार्च ’59
उसी ने रचा है
नहीं-वह नहीं जो कुछ मैंने जिया
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया
नहीं,
वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला
वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार
नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-
हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !
बल्कि वह सब-वह सब जिसके द्वारा मैं जिया गया
नहीं,
वह नहीं जिसको मैंने ही चाहा, अवगाहा, उगाहा-
जो मेरे ही अनवरत प्रयासों से खिला
बल्कि वह जो अनजाने ही किसी पगडंडी पर अपने-आप
मेरे लिए खिला हुआ मिला
वह भी नहीं
जिसके सिर पंख बाँध-बाँध सूर्य तक उड़ा मैं,
गिरा-गिर गिर कर टूटा हूँ बार-बार
नहीं-बल्कि वह जो अथाह नीले शून्य-सा फैला रहा
मुझसे निरपेक्ष, निज में असम्पृक्त, निर्विकार
नहीं, वह नहीं, जिसे थकान में याद किया, पीड़ा में
पाया, उदासी में गाया
नहीं, बल्कि वह जो सदा गाते समय गले में रुँध गया
भर आया
जिसके समक्ष मैंने अपने हर यत्न को
अधूरा, हर शब्द को झूठा-सा
पड़ता हुआ पाया-
हाय मैं नहीं,
मुझमें एक वही तो है जो हर बार टूटा है
-हर बार बचा है,
मैंने नहीं बल्कि उसने ही मुझे जिया
पीड़ा में, पराजय में, सुख की उदासी में, लक्ष्यहीन भटकन में
मिथ्या की तृप्ति तक में, उसी ने कचोटा है-
-उसी ने रचा है !
9 मार्च ’59
रवीन्द्र से
[रवीन्द्र जन्मशताब्दी के वर्ष : सोनारतरी (सोने की नाव) तथा उनकी अन्य कई प्यारी कविताएँ पढ़कर]
नहीं नहीं कभी नहीं थी, कोई नौका सोने की !
सिर्फ दूर तक थी बालू, सिर्फ दूर तक अँधियारा
वह थी क्या अपनी ही प्यास, कहा था जिसे जलधारा ?
नहीं दिखा कोई भी पाल, नहीं उठी कोई पतवार
नहीं तट लगी कोई नाव, हमने हर शाम पुकारा
अर्थहीन निकला वह गीत
शब्दों में हम हुए व्यतीत
हमने भी क्या कीमत दी यों विश्वासी होने की !
नहीं नहीं कभी नहीं थी
कोई नौका सोने की
हमको लेने कब आया कोई भी चन्दन का रथ ?
हमने भी अनमने उदाल धूल में लिखे अपने नाम
हमने भी भेजे सन्देश उड़ते बादल वाली शाम
जाग-जाग वातायन से देखी आगन्तुक की राह
हाय क्या अजब थी वह प्यास, हाय हुआ पर क्या अंजाम
लगते ही जरा कहीं आँच
निकला हर मणि-दाना काँच
शेष रहे लुटे थके हम, शेष वही अन्तहीन पथ
हमको लेने कब आया
कोई भी चन्दन का रथ ?
सिर्फ दूर तक थी बालू, सिर्फ दूर तक अँधियारा
वह थी क्या अपनी ही प्यास, कहा था जिसे जलधारा ?
नहीं दिखा कोई भी पाल, नहीं उठी कोई पतवार
नहीं तट लगी कोई नाव, हमने हर शाम पुकारा
अर्थहीन निकला वह गीत
शब्दों में हम हुए व्यतीत
हमने भी क्या कीमत दी यों विश्वासी होने की !
नहीं नहीं कभी नहीं थी
कोई नौका सोने की
हमको लेने कब आया कोई भी चन्दन का रथ ?
हमने भी अनमने उदाल धूल में लिखे अपने नाम
हमने भी भेजे सन्देश उड़ते बादल वाली शाम
जाग-जाग वातायन से देखी आगन्तुक की राह
हाय क्या अजब थी वह प्यास, हाय हुआ पर क्या अंजाम
लगते ही जरा कहीं आँच
निकला हर मणि-दाना काँच
शेष रहे लुटे थके हम, शेष वही अन्तहीन पथ
हमको लेने कब आया
कोई भी चन्दन का रथ ?
मई ’60
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